Sunday, 9 April 2017

सच्चे प्रेम की परिभाषा

समझाता हूँ इस बीमारी को;नाम जिसका है प्यार।
हो जाए बीमारी ये तो;मुश्किल पड़े करना इजहार।।
है इस बीमारी का अंत नहीं;धीरे-धीरे है बढ़ती जाती।
नयनो के द्वार से ये;दिल के कमरे में है घुसती जाती।।

सब कुछ खो जाये मगर सच्चा प्यार कभी न खोना।
सनम,ये जिंदगी तुम्हारी,मुझे तुम्हारे बिना न जीना।।
सौ बार सोचकर फिर याद करना इस मजनू को भी ;
जिंदगी गर तेरी न हुई,तो मुझे किसी और का न होना।।

सच्चा प्यार नहीं वो,जो रातें जगने से मिल जाये।
उस घर के आँगन में,एक नयी कली खिल जाये।।
जगते तो कुत्ते भी है,लेकिन रहते वो भी अकेले;
प्रेम का बंधन वो है यारों,जो प्राणों से मचल जाये।।

व्यथा,कथा दोनों निहित,इस प्यार में।
कष्ट,पीड़ा की न सीमा,इस संसार में।।
कितने दुश्मन आये यहाँ,प्यार को न मिटा पाये।
सदियों की प्रेम परम्परा को,कभी न डिगा पाये।।
साधू-संतो ने भी पाठ पढ़ाया,ढाई अक्षर प्यार का।
प्रेम बिना न"दीपक"जीवन,नियम यही संसार का।।

न जाने कितने मर मिटे है;इस ढाई अक्षर के लिए।
कई बिछड़े है इक दूसरे के बंधन से;प्यार के लिए।।
इसलिए कुछ तो है अजीब इस प्यार में दोस्तों वरना;
मीरा क्यूँ पीती विष का प्याला;श्रीकृष्ण के लिए।।

मछली के जीवन का,एक सहारा है पानी।
जाल में फसकर निकले,उसकी है रवानी।।
क्या कसूर है जो,मार डालते हो बेचारी को;
जो छोड़ जाती अपने मेल की,सत्य है कहानी।।

प्रेम की रेलगाड़ी छुक-छुक है चलती जब;
आँखों से आँखे चार होती,और होती है चुपके-चुपके बात।
कहने को तो दुनियां वालों कुछ भी कह दो;
जब भगवन ही न बच पाये इससे,तो मेरी क्या औकात।।

रचयिता-कवि कुलदीप प्रकाश शर्मा"दीपक"
मो.-9560802595,9628368094

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