देती हूँ दूध मैं, तन में देव समाये।
दूँ गौमूत्र और गोबर,जो रोग भगाये।।
फिर मांस खातिर,क्यों मारे है मुझको।
तड़पती हूँ बहुत,शर्म आती नहीं तुमको।।
दिया दूध जब तक,मैं माँ कहलाई।
नहीं मिला दूध तो सड़क की राह दिखाई।।
आवारा बनकर मैं घूमती इधर-उधर।
भरती पेट हूँ मैं, कागज-पालीथीन खाकर।।
सर्दी हो या गर्मी दोनों की,सहती हूँ मैं मार।
बरसात में भी नहीं खुलते,बेटे तुम्हारे द्वार।।
पकड़ कसाई कत्लखाने में,मारे बेदर्दी से।
खाते मांस मेरा,मेरे बेटे ही मस्ती से।।
मत कहना आज के बाद,माँ तू मुझे।
माँ की ममता की,आज सौगंध है तुझे।।
शर्म आती है मुझको,बेटे कहते हुए।
क्यूँ कि परायी हूँ,अपनों के होते हुए।।
रचयिता-कवि कुलदीप प्रकाश शर्मा"दीपक"
मो.-9560802595,9628368094
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